संस्कृति - पर्यावरण सामंजस्य
पर्यावरण में उपस्थित सभी तत्त्वों का आपस में विशेष सामंजस्य होता है। जो सम्पूर्ण प्रकृति में सन्तुलन बनाए रखता है। उन तत्त्वों के प्रति लापरवाह होने पर उनकी संगति बिगड़ जाती है और सन्तुलन भंग हो जाता है। आधुनिक युग में एक ओर तो मानव विकास के शीर्ष पर पहुँच चुका है. दूसरी ओर अनेक प्राकृतिक विसंगतियों उत्पन्न हो गई है। फलतः प्रकृति अपना सन्तुलन खोती जा रही है। पर्यावरण के साथ मनुष्य का दुर्व्यवहार विकास का चोला पहनकर आया। भारत की सभ्यता और संस्कृति तो अति प्राचीन है और यह देश अपने विकास के अनेक स्वर्ण युग देख चुका है। हमारी संस्कृति पर्यावरण संरक्षण प्रधान रही है जो सदैव से पर्यावरण संरक्षण पर आधारित रही है। इसके अन्तर्गत ग्रामीण क्षेत्रों कुओं, तालाबों तथा अन्य संरक्षित जलों के संरक्षण के साथ-ही-साथ पेड़-पौधों का सामूहिक संरक्षण हुआ है। इसी का सांस्कृतिक दृष्टि से सुरक्षा तथा पवित्रता के रूप में वर्णन किया गया है। पर्यावरण के सन्दर्भ में सांस्कृतिक दृष्टिकोण में यह माना जाता है कि पर्यावरण शुद्ध और पवित्र रहने से मानव जीवन की आवश्यकता; जैसे-वायु, जल, भोजन आदि की पूर्ति होती है, जिसके परिणामस्वरूप हमारा आध्यात्मिक एवं नैतिक उन्नयन होता है। वर्तमान में यह आवश्यक है कि मनुष्य होने के नाते अपनी चेतना, बुद्धि और विवेक का सदुपयोग किया जाए। प्रकृति एवं पर्यावरण को पुनः उसकी शुद्धता और गरिमा लौटा दी जाए। उसे सुरक्षित रखने के लिए सामाजिक और सांस्कृतिक पर्यावरण की दृढ़ता अनिवार्य है। स्वार्थ और लोभ ने दुष्प्रवृत्ति का जो साम्राज्य खड़ा कर लिया है, उसे उखाड़ फेंकने की आवश्यकता है। इसके लिए मनुष्य को संयम का सहारा लेना पड़ेगा। भारतीय संस्कृति के अनुरूप प्रेम, करुणा, दयालुता, सहृदयता जैसे उच्चमानवीय गुणों को पुनः स्थापित करना होगा, ताकि सह-अस्तित्व की भावना के साथ प्रकृति और पर्यावरण को पुनः उसका वास्तविक स्वरूप प्राप्त हो सके। यह तभी सम्भव होगा जब हम सजग, सतर्क और सक्रिय रहेंगे।