क्या है दल बदल काननू और इसके प्रावधान ? UPSC gs पेपर २


         

संविधान में जनता को अपने प्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार नहीं दिया गया है । इस अधिकार के अभाव में 1985 से पहले राजनेता कभी भी अपनी मर्जी के अनुसार किसी दल में शामिल हो जाते और किसी दल से बाहर आ जाते । उदाहरण के रूप में हरियाणा के एक विधायक गयाराम के द्वारा 9 घंटे के भीतर तीन पार्टी की सदस्यता ली और छोड़ दी गई।  धीरे-धीरे ऐसी स्थिति उत्पन्न होने लगी की विपक्षी दल साम, दाम, दंड ,भेद लगाकर सत्तारूढ़ दल को गिराने में लगी रहती थी ।  ऐसी स्तिथि में जनता  का  राजनीतिक दलो के प्रति आस्था कमजोर होने लगी और मतदाता अपने आपको छला हुआ महसूस करने लगे  । इसके परिणाम स्वरूप लोकतंत्र हास्यपदय हो गया था। इन परिस्थितियों से निपटने के लिए 1985 में राजीव गांधी सरकार के द्वारा 52 वा संविधान संशोधन के माध्यम से दल बदल विरोधी कानून लाया गया तथा इसे संविधान के  दसवीं अनुसूची में शामिल किया गया 

. इसके निम्नलिखित प्रावधान है:-

* यदि कोई सदस्य सदन के भीतर पार्टी के निर्देशों का उल्लंघन करता है तो सदन के अध्यक्ष उनको अयोग्य ठहरा सकते  है ।

*निर्दलीय सदस्य अगर कोई राजनीतिक दल में शामिल होते हैं तो उनकी सदस्यता चली जाएगी ।

* अगर किसी दल के एक तिहाई सदस्य पार्टी से अलग होकर नई पार्टी बना लेते हैं या किसी अन्य दल में शामिल हो जाते हैं तो उनकी सदस्यता नहीं जाएगी वर्तमान में 91 संविधान संशोधन 2003 के माध्यम से इसे दो तिहाई कर दिया गया है ।

* राज्यसभा में 12 नामांकित सदस्य 6 महीने के भीतर कोई राजनीतिक दल में शामिल हो जाते हैं तो उनकी सदस्यता बनी रहेगी ।  इसके बाद अगर किसी राजनीतिक दल में शामिल होते तो सदस्यता चली जाएगी .

* दल बदल विरोधी कानून के पक्ष में तर्क :-

 - दलबदल को नियंत्रित करने में मदद मिलेगा । इससे सदस्य  अपने पार्टी के प्रति निष्ठावान बने रहेंगे।

- सत्तारूढ़ दल में स्थिरता आएगी। 1985 से पहले विधायक एवं सांसदों की खरीद एवं बिक्री होती थी जिसे हम हॉर्स ट्रेडिंग कहते हैं इस पर लगाम लगेगा।

- राजनीतिक दलों में अनुशासन विकसित होगा।

-भ्रष्टाचार पर नियंत्रण होगा और , संवैधानिक पहचान स्थापित होगा . 

*दल बदल विरोधी कानून के विपक्ष में तर्क:-

- दलबदल करना निजी मामला है।

- प्रभावी लोकतंत्र के विरुद्ध है :- राजनीतिक दलों मैं इंट्रापार्टी डेमोक्रेसी का अभाव होता है । पार्टी मे कुछ ही लोग निर्णय लेते है और इस निर्णय को मजबूरी बस पार्टी के सदस्य आंख बंद करके स्वीकार कर लेते हैं।

- सांसद एवं विधायक और जनता के बीच लिंक कमजोर होता है 

  -दलबदल पर अंतिम फैसला अध्यक्ष को लेना होता है। अध्यक्ष किसी दल का होता है, तो वह  अपने दल का ही समर्थन करेगा ।

- छिटपुट दलबदल पर रोक  तो है किंतु समूह पर नहीं है ।यानी एक व्यक्ति चोरी करे तो चोरी बहुत लोग करें तो सही ।

      ,दल बदल विरोधी कानून आने के बाद 1985 से पहले की तुलना में दलबदल कम जरूर हुआ हैं । किंतु अभी भी यह प्रक्रिया जारी है ।वर्तमान उदाहरणों को देखे तो महाराष्ट्र और बिहार में राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न हो गई है। वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए  दलबदल को और ज्यादा ,उपयोगी   बनाने के लिए ,विधि आयोग और सर्वोच्च न्यायालय ने निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किए हैं :-

(1) विधि आयोग 1999 में अपने 170 वी रिपोर्ट में निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किए है :-

  - विभिन्न राजनीतिक दल चुनाव पूर्व गठबंधन करती हैं तो दल बदल विरोधी कानून के अंतर्गत इसे एक ही द्ल माना जाए ।

- राजनीतिक दल महत्वपूर्ण मुद्दों पर ही विहिप जारी करें बाकी मुद्दों पर अपने सदस्यों को विचार रखने के लिए मुक्त रखा जाए । तभी हमारे देश में वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना हो पाएगी

(2) दलबदल पर अंतिम फैसला अध्यक्ष ना करके राष्ट्रपति या गवर्नर चुनाव आयोग के सलाह पर करें । और चुनाव आयोग का  ,सुझाव  बाध्यकारी हो ।

(3)संवैधानिक विशेषज्ञों के अनुसार  दल बदल के संबंध में फैसला कोई स्वायत्त संस्थान करें 

(4) सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा 1992 में किहोतो होलोहान बनाम ज़चिलझु मामले में सुनवाई के दौरान कहां  गया की राजनीतिक दल केवल महत्वपूर्ण मुद्दों पर विहिप जारी करें बाकी   सदस्यों को अपना नजरिया प्रस्तुत करने के लिए छोड़ दिया जाए ।

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