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बात

 बात

किसी देश के जल बात का वर्णन करते, किन्तु दोनों विषयों में से हमें एक बात कहने का भी प्रयोजन  यदि हम वैद्य होते तो कफ और पित्त के सहवर्ती बात की व्याख्या करते तथा भूगोल-वेत्ता होते तो नहीं है। हम तो केवल उसी बात के ऊपर दो-चार बातें लिखते हैं, जो हमारे-तुम्हारे संभाषण के समय मुख से निकल-निकल के परस्पर हृदयस्थ भाव को प्रकाशित करती रहती है।

सच पूछिए तो इस बात की भी क्या ही बात है, जिसके प्रभाव से मानव जाति समस्त जीवधारियों की शिरोमणि (अशरफुल मखलूकात) कहलाती है। शुकसारिकादि पक्षी केवल थोड़ी-सी समझने योग्य बातें उच्चरित कर सकते हैं, इसी से अन्य नमचारियों की अपेक्षा आदृत समझे जाते हैं। फिर कौन न मानेगा कि बात की बड़ी बात है। हाँ, बात की बात इतनी बड़ी है कि परमात्मा को लोग निराकार कहते हैं तो भी इसका सम्बन्ध उसके साथ लगाये रहते हैं। वेद, ईश्वर का वचन हैं, कुरआनशरीफ कलामुल्लाह है, होली बाइबिल वर्ड ऑफ गॉड है। यह वचन, कलाम और वर्ड बात ही के पर्याय हैं, जो प्रत्यक्ष मुख के बिना स्थिति नहीं कर सकती। पर बात की महिमा के अनुरोध से सभी धर्मावलम्बियों ने 'बिन बानी वक्ता बड़ जोगी' वाली बात मान रखी है। यदि कोई न माने तो लाखों बातें बना के मनाने पर कटिबद्ध रहते हैं। यहाँ तक कि प्रेम सिद्धान्ती लोग निरवयव नाम से मुँह बिचकावेगे। 'अपाणिपादो जवनो ग्रहीता' पर हठ करने वाले को यह कह के बातों में उड़ावेंगे कि 'हम लूले लंगड़े ईश्वर को नहीं मान सकते, हमारा प्यारा तो कोटि काम सुन्दर श्याम वर्ण विशिष्ट है।' निराकार शब्द का अर्थ श्री शालिग्राम शिला है, जो उसकी श्यामता का द्योतन करती है अथवा योगाभ्यास का आरम्भ करने वाले को ऑंखें मूंदने पर जो कुछ पहले दिखाई देता है, वह निराकार अर्थात् बिल्कुल काला रंग है। सिद्धान्त यह है कि रंगरूपरहित को सब रंग-रंजित एवं अनेक रूपसहित ठहरावेगे, किन्तु कानों अथवा प्राणों वा दोनों को प्रेमरस से सिंचित करने वाली उसकी मधुर मनोहर बातों के मजे से अपने को वंचित न रहने देंगे।

जब परमेश्वर तक बात का प्रभाव पहुँचा हुआ है तो हमारी कौन बात रही? हम लोगों के तो 'गात माँहि बात करामात है।' नाना शास्त्र, पुराण, इतिहास, काव्य, कोश इत्यादि सब बात ही के फैलाव हैं, जिनके मध्य एक-एक बात ऐसी पायी जाती है, जो मन, बुद्धि, चित्त को अपूर्व दशा में ले जाने वाली अथच लोक-परलोक में सब बात बनाने वाली है। यद्यपि बात का कोई रूप नहीं बतला सकता कि कैसी है, पर बुद्धि दौड़ाइये तो ईश्वर की भाँति इसके भी अगणित ही रूप पाइएगा। बड़ी बात, छोटी बात, सीधी. बात, टेढ़ी बात, खोटी बात, मीठी बात, कड़वी बात, भली बात, बुरी बात, सुहाती बात, लगती बात इत्यादि सब बात ही तो हैं।

 बात के काम भी इसी भाँति अनेक देखने में आते है। प्रीति बैर, सुख-दुःख, श्रद्धा-घृणा, उत्साह- अनुत्साह आदि जितनी उत्तमता और सहजतया बात के द्वारा विदित हो सकते हैं, दूसरी रीति से वैसी सुविधा ही नहीं। पर बैठे लाखों कोस का समाचार मुख और लेखनी से निर्गत बात ही बतला सकती है। डाकखाने अथवा तारघर के सहारे से बात की बात में चाहे जहाँ की जो बात ही जान सकते हैं। इसके अतिरिक्त बात बनती है, बात बिगड़ती है, बात आ पड़ती है, बात जाती रहती है, बात उखड़ती है। हमारे तुम्हारे भी सभी काम बात पर ही निर्भर करते हैं। बातहि हाथी पाइये बातहि हाथी पाँव' बात हो से पराये अपने और अपने पराये हो जाते हैं, मक्खीचूस उदार तथा उदार स्वत्पव्ययी, कापुरुष एवं


युद्धप्रिय शान्तिशील, कुमार्गी सुपथगामी अथ च सुपंथी कुराही इत्यादि बन जाते हैं। बात का तत्व समझना हर एक का काम नहीं है और दूसरों की समझ पर आधिपत्य जमाने गोग्य बात गढ़ सकना भी ऐसो-पैसों का साध्य नहीं है। बड़े-बड़े विज्ञवरों तथा महा-महा कवीश्वरों के जीवन बात ही के समझने समझाने में व्यतीत हो जाते हैं। सहृदयगण की बात के आनन्द के आगे सारा संसार तुच्छ जंचता है। बालकों की तोतली बातें, सुन्दरियों की मीठी-मीठी प्यारी-प्यारी बातें, सत्कवियों की रसीली बातें, सुवक्ताओं की प्रभावशालिनी बातें, जिनके जी को और का और न कर दें, उसे पशु नहीं पाषाणखंड कहना चाहिए। क्योंकि कुत्ते, बिल्ली आदि को विशेष समझ नहीं होती तो भी पुचकार के 'तू-तू,' 'पूसी-पूसी' इत्यादि बातें कह दो तो भावार्थ समझ के यथासामर्थ्य स्नेह-प्रदर्शन करने लगते है। फिर वह मनुष्य कैसा, जिसके चित्त पर दूसरे हृदयवान् की बात का असर न हो।


हमारे परम पूजनीय आर्यगण अपनी बात का इतना पक्ष करते थे कि 'तन तिय तनय धाम धन धरनी। सत्यसंध कहँ तृन सम बरनी।' अथच 'प्राणन ते सुत अधिक है सुत ते अधिक पराना ते दूनों दशरथ तजे वचन न दीन्हों जान।' इत्यादि उनकी अक्षर-संबद्धा कीर्ति सदा संसार पट्टिका पर सोने के अक्षरों से लिखी रहेगी। पर आजकल के बहुतेरे भारत कुपुत्रों ने यह ढंग पकड़ रखा है 'मर्द की जवान' (बात का उदय स्थान) और गाड़ी का पहिया चलता-फिरता ही रहता है। आज जो बात है कल ही स्वार्थान्धता के वश हुजूरों की मरजी के मुवाफिक दूसरी बातें हो जाने में तनिक भी विलम्ब की सम्भावना नहीं है। यद्यपि कभी-कभी अवसर पड़ने पर बात के अंश का कुछ रंग-ढंग परिवर्तित कर लेना नोति विरुद्ध नहीं है। पर कब? जात्युपकार, देशोद्धार, प्रेम-प्रचार आदि के समय, न कि पापी पेट के लिए।


एक हम लोग हैं, जिन्हें आर्यकुल रत्नों के अनुगमन की सामर्थ्य नहीं है? किन्तु हिन्दुस्तानियों के नाम पर कलंक लगाने वालों के भी सहमार्गी बनने में घिन लगती है। इससे यह रीति अंगीकार कर रखी है कि चाहे कोई बड़ा बतकहा अर्थात् बातूनी कहे चाहे यह समझे कि बात कहने का भी शक नहीं है, किन्तु अपनी मति के अनुसार ऐसी बातें बनाते रहना चाहिए, जिनमें कोई-न-कोई किसी-न-किसी के वास्तविक हित की बात निकलती रहे। पर खेद है कि हमारी बाते सुनने वाले उँगलियों ही पर गिनने भर को है। इससे 'बात-बात में बात' निकालने का उत्साह नहीं होता। अपने जी को 'क्या बने बात जहां बात बनाये न बने न इत्यादि विदग्धालापों की लेखनी से निकली हुई बातें सुना के कुछ फुसला लेते हैं और बिन बात की बात को बात का बतंगड़ समझ के बहुत बात बढ़ाने से हाथ समेट लेना हो समझते हैं कि अच्छी बात है।

-प्रतापनारायण मिश्र

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